डेली न्यूज़
व्यापक व्यापार घाटे के साथ हाल ही में विदेशी मुद्रा भंडार में कमी के कारण भारतीय रुपए के मूल्य में गिरावट दर्ज़ की गई और कुछ ही समय पहले यह अब तक के निचले स्तर पर पहुँच गया। रुपए के मूल्य में हो रही गिरावट आम आदमी से लेकर अर्थव्यवस्था तक सभी के लिये चिंता का विषय बनी हुई है। ऐसे में यह जानकारी होना आवश्यक है कि रुपए के मूल्य में हो रही गिरावट के मायने क्या हैं?
रुपया कमज़ोर या मज़बूत क्यों होता है?
- विदेशी मुद्रा भंडार के घटने या बढ़ने का असर किसी भी देश की मुद्रा पर पड़ता है। चूँकि अमेरिकी डॉलर को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा माना गया है जिसका अर्थ यह है कि निर्यात की जाने वाली सभी वस्तुओं की कीमत डॉलर में अदा की जाती है।
- अतः भारत की विदेशी मुद्रा में कमी का तात्पर्य यह है कि भारत द्वारा किये जाने वाले वस्तुओं के आयात मूल्य में वृद्धि तथा निर्यात मूल्य में कमी।
- उदहारण के लिये भारत को कच्चा तेल आदि खरीदने हेतु मूल्य डॉलर के रूप में चुकाना होता है, इस प्रकार भारत मुद्रा का मूल्य कैसे कम होता है? मुद्रा का मूल्य कैसे कम होता है? ने अपने विदेशी मुद्रा भंडार से जितने डॉलर खर्च कर तेल का आयात किया उतना उसका विदेशी मुद्रा भंडार कम हुआ इसके लिये भारत उतने ही डॉलर मूल्य की वस्तुओं का निर्यात करे तो उसके विदेशी मुद्रा भंडार में हुई कमी को पूरा किया जा सकता है। लेकिन यदि भारत से किये जाने वाले निर्यात के मूल्य में कमी हो तथा आयात कीमतों में लगातार वृद्धि हो रही हो तो ऐसी स्थिति में डॉलर खरीदने की ज़रूरत होती है तथा एक डॉलर खरीदने के लिये जितना अधिक रुपया खर्च होगा वह उतना ही कमज़ोर होगा।
विदेशी मुद्रा भंडार क्या है?
प्रत्येक देश के पास दूसरे देशों की मुद्रा का भंडार होता है, जिसका प्रयोग वस्तुओं के आयत –निर्यात में किया जाता है, इसे ही विदेशी मुद्रा भंडार कहते हैं। भारत में समय-समय पर इसके आंकडे भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा जारी किये जाते हैं।
एक मुद्रा को दूसरी मुद्रा में बदलने की सुविधा के बारे में
एक मुद्रा को दूसरी मुद्रा में बदलने की सुविधा से, अपने प्रॉडक्ट को ज़्यादा देशों तक पहुंचाया जा सकता है. यह खास तौर पर आपके लिए तब अहम हो सकता है, जब एक से ज़्यादा देशों में अपने प्रॉडक्ट बेचे और शिप किए जाते हैं. हालांकि, आपकी वेबसाइट पर हर देश की मुद्रा के लिए अलग प्रॉडक्ट पेज नहीं होते हैं. Merchant Center के सभी खातों में एक मुद्रा का मूल्य कैसे कम होता है? मुद्रा को दूसरी मुद्रा में बदलने की सुविधा अपने-आप चालू रहती है. बस वे प्रॉडक्ट और कीमतें सबमिट करें जो आपकी वेबसाइट पर इस्तेमाल की जाती हैं. इसके बाद, टूल आपके लिए विज्ञापनों में एक मुद्रा को दूसरी मुद्रा में बदले जाने का अनुमान लगा लेगा.
इस लेख में बताया गया है कि एक मुद्रा को दूसरी मुद्रा में बदलने की सुविधा कैसे काम करती है.
फ़ायदे
- आपके प्रॉडक्ट के विज्ञापनों को आपकी वेबसाइट मुद्रा का मूल्य कैसे कम होता है? में बिना कोई बदलाव किए, अपने-आप दूसरे देश में दिखाती है. जिस देश में सामान बेचा जा रहा है अगर आपके पास उसकी मुद्रा स्वीकार करने की सुविधा नहीं है, तो एक मुद्रा से दूसरी मुद्रा में बदलने की सुविधा से आपको अपनी पहुंच बढ़ाने में मदद मिलती है.
यह सुविधा कैसे काम करती है
एक मुद्रा से दूसरी मुद्रा में बदलने की सुविधा, आपके प्रॉडक्ट डेटा में दी गई कीमत को अपने-आप टारगेट किए गए नए देश की मुद्रा में बदल देती है. साथ ही, आपके विज्ञापनों और मुफ़्त में दिखाई जाने वाली प्रॉडक्ट लिस्टिंग में दोनों कीमतें दिखती हैं. इससे आपकी लिस्टिंग और विज्ञापन, दूसरे देशों के लोगों को भी समझ में आ जाते हैं. साथ ही, कम से कम बदलाव करके, अपनी मौजूदा वेबसाइट और लैंडिंग पेजों का इस्तेमाल करना जारी रखा जा सकता है.
अगर अपने कैंपेन में, टारगेट किए गए देश की मुद्रा का मूल्य कैसे कम होता है? मुद्रा से अलग मुद्रा में कीमतें दी जाती हैं, तो कीमतें अपने-आप बदल जाएंगी और स्थानीय मुद्रा में दिखेंगी.
आपके विज्ञापन या लिस्टिंग में दिख रही, बदली हुई कीमत का अनुमान, Google Finance की विनिमय दरों के मुताबिक होगा.
आपके विज्ञापनों और लिस्टिंग में आपकी मुद्रा को उस देश की मुद्रा में बदल दिया जाएगा जहां प्रॉडक्ट को बेचा जाना है. हालांकि, किसी नए देश को टारगेट करने के लिए, आपको उस देश की भाषा से जुड़ी ज़रूरी शर्तों को अब भी पूरा करना होगा. ध्यान रखें कि आपको अपने टारगेट किए गए देश की शिपिंग से जुड़ी ज़रूरी शर्तों को पूरा करने के लिए, अपनी शिपिंग की सेटिंग भी अपडेट करनी होंगी. शिपिंग की जानकारी सेट अप करने का तरीका जानें
आपकी वेबसाइट आपकी मौजूदा मुद्रा में शुल्क लेती है, इसलिए उपयोगकर्ता की खरीदारी की आखिरी कीमत उपयोगकर्ता के क्रेडिट कार्ड या पैसे चुकाने की सेवा देने वाली दूसरी कंपनी की विनिमय दरों के हिसाब से होती है. इसका मतलब है कि खरीदारी की आखिरी कीमत और अनुमान अलग-अलग हो सकते हैं. पक्का करें कि आपके पूरे लैंडिंग पेज और वेबसाइट पर कीमत, सबसे पहले चुनी गई मुद्रा में साफ़ तौर पर दिख रही हो.
मटिल्डा का स्टोर अमेरिका में है और उनकी वेबसाइट पर प्रॉडक्ट की कीमतें अमेरिकन डॉलर में दिखती हैं. वह अमेरिका में विज्ञापन करने के लिए शॉपिंग विज्ञापनों का इस्तेमाल करती हैं, इसलिए उनके प्रॉडक्ट डेटा में कीमतें अमेरिकन डॉलर में होती हैं. वह कनाडा में भी प्रॉडक्ट को बेचती और शिप करती हैं, लेकिन उनकी वेबसाइट पर कीमतें कैनेडियन डॉलर में नहीं दिखतीं.
हालांकि, एक मुद्रा से दूसरी मुद्रा में बदलने की सुविधा के साथ, मटिल्डा कनाडा में विज्ञापन देने के लिए अपना अमेरिका का प्रॉडक्ट डेटा और लैंडिंग पेज इस्तेमाल कर सकती हैं, जिस पर कीमतें अमेरिकन मुद्रा का मूल्य कैसे कम होता है? डॉलर में दिखती हैं. प्रॉडक्ट डेटा सबमिट करने के बाद, वे अपने Google Ads खाते में एक नया शॉपिंग कैंपेन बनाती हैं. अब उनके पास दो कैंपेन हैं, एक अमेरिका के लिए और दूसरा कनाडा के लिए. इसके लिए, उन्होंने वही लैंडिंग पेज और खास तौर पर वही प्रॉडक्ट डेटा इस्तेमाल किया है.
मटिल्डा के कनाडा वाले कैंपेन में, उनके विज्ञापन पर प्रॉडक्ट की कीमतें कैनेडियन डॉलर में दिखती हैं और दूसरी मुद्रा के मुद्रा का मूल्य कैसे कम होता है? तौर पर अमेरिकी डॉलर वाली कीमतें भी होती हैं. दूसरी मुद्रा में बदली गई कीमतों से कनाडा के संभावित ग्राहकों को प्रॉडक्ट और उसकी कीमत को अपनी जानी-पहचानी मुद्रा में समझने में मदद मिलती है. लोग जब किसी विज्ञापन पर क्लिक करते हैं, तो उन्हें मटिल्डा का लैंडिंग पेज दिखता है जिसमें कीमत अमेरिकी डॉलर में होती हैं. वे अपनी खुद की मुद्रा में साफ़ तौर पर कीमत की जानकारी पाकर, चेकआउट प्रोसेस को पूरा कर सकते हैं.
नीति और ज़रूरी शर्तें
उपयोगकर्ताओं को आपकी मुफ़्त में दिखाई जाने वाली लिस्टिंग और विज्ञापन, उनकी मुद्रा से अलग मुद्रा में दिखते हैं. इसलिए, उन्हें लग सकता है कि वे किसी दूसरे देश की कंपनी या व्यापारी से खरीदारी कर रहे हैं. लोगों के अनुभव को एक जैसा रखने के लिए, आपको उस देश की कीमत और टैक्स से जुड़ी ज़रूरी शर्तों का पालन करना होगा जिसकी मुद्रा का इस्तेमाल आपके प्रॉडक्ट डेटा में हुआ है.
उदाहरण के लिए, अगर आपका प्रॉडक्ट डेटा अमेरिकी डॉलर में सबमिट किया गया है और आपकी वेबसाइट अमेरिकी डॉलर में शुल्क ले रही है, तो आपको अमेरिका की कीमत और टैक्स से जुड़ी ज़रूरी शर्तों का पालन करना होगा. दूसरी सभी ज़रूरी शर्तों के बारे में जानने के लिए, उस देश की स्थानीय ज़रूरी शर्तें देखें.
यह किन सुविधाओं के साथ काम करता है
Merchant Center और Google Ads की इन सुविधाओं के साथ, एक मुद्रा को दूसरी मुद्रा में बदलने की सुविधा का इस्तेमाल किया जा सकता है.
आज़ादी से अब तक सिर्फ 1 बार ऐसा हुआ कि रुपया लगातार दो या ज्यादा साल मज़बूत हुआ
10 साल में भारतीय करेंसी के मुकाबले डॉलर 20.22 रुपए तक महंगा हो गया है। अक्टूबर 2008 में रुपया 48.88 प्रति डॉलर के स्तर पर था, जो अब 69.10 के स्तर पर है। जल्द ही इसके 70 के स्तर पर पहुंचने की भी आशंका है। हालांकि रुपए के कमजोर होने का यह ट्रेंड अप्रैल 2016 से जारी है। वैसे आजादी के बाद से अब रुपए के मजबूत और कमजोर होने पर नजर डालें, तो कुछ और भी चौंकाने वाली जानकारियां सामने आती हैं। यह भी साफ हो जाता है कि इन 70 वर्षों में एक बार ही ऐसा मौका आया है, जब रुपया लगातार दो या ज्यादा बार मजबूत हुआ हो। ऐसा 2008 से 2011 के बीच हुआ। अक्टूबर 2008 में रुपया 48.88 प्रति डॉलर था, जो 2009 में 46.37 के स्तर पर पहुंचा। जनवरी 2010 में रुपए ने 46.21 के स्तर को छुआ। इसके बाद अप्रैल 2011 में रुपया एक बार फिर मजबूत होकर 44.17 के स्तर पर पहुंच गया।
वर्ष 2005 के बाद रुपए की चाल
सबसे बड़ी मजबूती
5.77 रुपए की
जनवरी 2006 से 2007 के बीच
हालांकि 1990 से 1995 के बीच डॉलर के मुकाबले रुपया सबसे ज्यादा 15.41 अंक मजबूत हुआ। इस दौरान 17.01 के स्तर से 32.42 के स्तर पर पहुंच गया था।
बड़ी गिरावट अगले ही साल
9.46 रुपए की
जनवरी 2007 से जनवरी 2008 के बीच
डॉलर के मुकाबले रुपए में रिकॉर्ड गिरावट के दो अहम कारण बताए जा रहे हैं। पहला-2008 की आर्थिक मंदी के बाद अमेरिकी अर्थव्यवस्था की मजबूती, दूसरा- कच्चे तेल के ऊंचे दाम। इन्हीं वजहों से जानकार रुपए के और भी कमजोर होकर 70 के स्तर तक पहुंचने की बात कह रहे हैं। जानिए ये फैक्टर आखिर कैसे रुपए को प्रभावित करते हैं?
इन सवाल-जवाब में रुपए के कमजोर होने से जुड़ा वो सबकुछ जो आप जानना चाहते हैं
रुपए के गिरने व कमजोर होने का क्या मतलब?
डॉलर की तुलना में किसी भी अन्य मुद्रा का मूल्य घटे तो इसे उस मुद्रा का गिरना, मुद्रा का मूल्य कैसे कम होता है? टूटना, कमजोर होना कहते हैं। अंग्रेजी में करेंसी डेप्रीशिएशन। ऐसा ही कुछ तीन दिन पहले 28 जून को रुपए के साथ हुआ है। डॉलर के मुकाबले भारतीय मुद्रा अब तक के सबसे निचले स्तर पर जा पहुंची। एक डॉलर का मूल्य 69.10 रुपए हो गया। पहली बार डॉलर का भाव 69 रुपए से अधिक हुआ। वैसे, रुपए ने इससे पहले अपना सबसे निचला स्तर नवंबर 2016 में देखा था। तब डॉलर के मुकाबले रुपए का मूल्य 68.80 हो गया था।
आखिर कौन तय करता है रुपए का मूल्य?
हर देश के पास विदेशी मुद्रा का भंडार होता है, जिससे वह अंतरराष्ट्रीय लेन-देन करता है। विदेशी मुद्रा भंडार के घटने और बढ़ने से ही उस देश की मुद्रा की चाल तय होती है। अगर भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर, अमेरिका के रुपयों के भंडार के बराबर है तो रुपए की कीमत स्थिर रहेगी। हमारे पास डॉलर घटे तो रुपया कमजोर होगा, बढ़े तो रुपया मजबूत होगा। इसे फ्लोटिंग रेट सिस्टम कहते हैं, जिसे भारत ने 1975 से अपनाया है।
इसे ऐसे समझें.
अमेरिका के पास 69,000 रुपए हैं और हमारे पास 1,000 डॉलर। डॉलर का भाव 69 रुपए है, तो दोनों के पास बराबर धनराशि है। अब अगर हमें अमेरिका से कोई ऐसी चीज मंगानी है, जिसका भाव हमारी करेंसी के हिसाब से 6,900 रुपए है तो हमें इसके लिए 100 डॉलर चुकाने होंगे। अब हमारे विदेशी मुद्रा भंडार में बचे 900 डॉलर। जबकि, अमेरिका के विदेशी मुद्रा भंडार में भारत के जो 69000 रुपए थे, वो तो हैं ही, भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में जो 100 डॉलर थे वो भी उसके पास चले गए। संतुलन बनाने के लिए जरूरी है कि भारत भी अमेरिका को 100 डॉलर का सामान बेचे। मगर जितना माल हम डॉलर चुकाकर आयात करते हैं, उतना निर्यात नहीं करते। इसलिए डॉलर का मूल्य रुपए की तुलना में लगातार बढ़ता जा रहा है।
पूरी दुनिया में एक जैसा करेंसी एक्सचेंज सिस्टम
फॉरेक्स (फॉरेन एक्सचेंज)मार्केट में रुपए के बदले विभिन्न देशों की मुद्राओं की लेन-देन की दर तय होती है। डॉलर के मुकाबले यदि रुपए में घट-बढ़ होती है तो इसका सीधा असर फॉरेक्स मार्केट पर दिखता है, क्योंकि इसी के आधार पर देश के लोग विदेशी बाजारों से लेन-देन करते हैं। साथ ही सबसे पहले निर्यातक और आयातक प्रभावित होते हैं। हर देश के अपने फॉरेक्स मार्केट होते हैं, लेकिन सभी एक ही तरह से काम करते हैं। इसके अलावा तीन और बाजार होते हैं-
कैपिटल मार्केट: इसमें इक्विटी की खरीदी बिक्री होती है।
फाइनेंशियल मार्केट: बॉन्ड, डेब्ट फंड्स का लेन-देन।
कॉल मनी मार्केट: बैंक जरूरत पड़ने पर आपस में रुपए का लेन-देन करते हैं। ब्याज दर आरबीआई तय करता है।
1948 में बराबर थे डॉलर और रुपया
रुपया आजादी से पहले डॉलर के मुकाबले मजबूत था। असल में तब सभी अंतरराष्ट्रीय मुद्राओं का मूल्य सोने-चांदी से तय होता था। इसके बाद ब्रिटिश पाउंड और विश्व युद्धों के बाद से अमेरिकी डॉलर उस भूमिका में है। वैसे आजादी के बाद यानी 1948 में एक डॉलर-1.3 रुपए के बराबर ही था। 1975 में डॉलर का मूल्य 8.39 रु., 2000 में 43.5 रु. हो गया। 2011 में इसने पहली बार मुद्रा का मूल्य कैसे कम होता है? 50 का आंकड़ा पार किया।
करेंसी डॉलर-बेस्ड ही क्यों और कब से?
फॉरेन एक्सचेंज मार्केट में अधिकांश मुद्राओं की तुलना डॉलर से होती है। इसके पीछे द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हुआ ‘ब्रेटन वुड्स एग्रीमेंट’ है। इसमें एक न्यूट्रल ग्लोबल करेंसी बनाने का प्रस्ताव रखा गया था। हालांकि तब अमेरिका अकेला ऐसा देश था, जो अार्थिक तौर पर मजबूत होकर उभरा था। ऐसे में अमेरिकी डॉलर को दुनिया की रिजर्व करेंसी के तौर पर चुन लिया गया। युद्ध के बाद बड़े देशों की करेंसी का एक्सचेंज रेट तय किया गया। हालांकि उस वक्त सोने में लेन-देन होता था। 1971 में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने अचानक डॉलर के बदले गोल्ड एक्सचेंज पर रोक लगा दी। आज दुनियाभर में केंंद्रीय बैंकों की विदेशी मुद्रा का 64% डॉलर ही है।
गिर क्यों रही है भारतीय मुद्रा?
रुपए की कमजोरी की वजहें समय के हिसाब से बदलती रही हैं। कभी राजनीतिक हालात मुद्रा का मूल्य कैसे कम होता है? से तो कभी वैश्विक या अमेरिका के आर्थिक हालात से। वर्तमान में दोनों हालात जिम्मेदार हैं।
अमेरिकी अर्थव्यवस्था 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी के एक दशक बाद अब पटरी पर है। इस साल उसकी विकास दर करीब तीन फीसदी रहने का अनुमान है। इसके अलावा इस साल फेडरल रिजर्व बैंक ने ब्याज दर को दूसरी बार बढ़ाते हुए दो फीसदी कर दिया है। इन दो वजहों से निवेशक भारत और दुनिया के दूसरे देशों से अपना निवेश निकालकर अमेरिका ले जाने लगे हैं और वहां बॉन्ड में निवेश कर रहे हैं। इससे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाजार में डॉलर की मांग कम नहीं हो रही।
कच्चा तेल तीन हफ्तों में 6 डॉलर सस्ता होकर 73 डॉलर प्रति बैरल तक आया है। मगर जरूरत का 80 फीसदी तेल आयात करने वाले भारत के लिए यह भाव भी काफी ज्यादा है। हमें तेल के बदले ज्यादा डॉलर चुकाने पड़ रहे हैं। असल में कच्चे तेल की कीमतों में उछाल की वजह राजनीतिक भी है। अमेरिका ने ईरान से परमाणु समझौता तोड़कर उस पर फिर प्रतिबंध लगा दिया है। वेनेजुएला में आर्थिक संकट गहरा चुका है। इससे कच्चे तेल का वैश्विक उत्पादन और निर्यात प्रभावित हुआ है।
कहां नुकसान या फायदा?
नुकसान: कच्चे तेल का आयात महंगा होगा, जिससे महंगाई बढ़ेगी। देश में सब्जियां और खाद्य पदार्थ महंगे होंगे। वहीं भारतीयों को डॉलर में पेमेंट करना भारी पड़ेगा। यानी विदेश घूमना महंगा होगा, विदेशों में पढ़ाई महंगी होगी।
फायदा: निर्यात करने वालों को फायदा होगा, क्योंकि पेमेंट डॉलर में मिलेगा, जिसे वह रुपए में बदलकर ज्यादा कमाई कर सकेंगे। इससे विदेश में माल बेचने वाली आईटी और फार्मा कंपनी को फायदा होगा।
कैसे संभलती है स्थिति?
मुद्रा की कमजोर होती स्थिति को संभालने में किसी भी देश के केंद्रीय बैंक का अहम रोल होता है। भारत में यह भूमिका रिजर्व बैंक अॉफ इंडिया की है। वह अपने विदेशी मुद्रा भंडार से और विदेश से डॉलर खरीदकर बाजार में उसकी मांग पूरी करने का प्रयास करता है। इससे डॉलर की कीमतें रुपए के मुकाबले स्थिर करने में कुछ हद तक मदद मिलती है।
गिरते रुपये को रोकें कैसे?
साल भर पहले तक एक डॉलर की कीमत 54 रुपये के आसपास थी। लेकिन इस साल मई से रुपये की कीमत गिरने लगी। इस सोमवार को तो रुपया इतना गिरा कि डॉलर की कीमत 61 रुपये तक जा.
साल भर पहले तक एक डॉलर की कीमत 54 रुपये के आसपास थी। लेकिन इस साल मई से रुपये की कीमत गिरने लगी। इस सोमवार को तो रुपया इतना गिरा कि डॉलर की कीमत 61 रुपये तक जा पहुंची। इसके बाद से रुपये की कीमत में थोड़ा सुधार जरूर हुआ, लेकिन अब भी यह एशिया की सबसे कमजोर मुद्रा है। आपके और हमारे लिए इसका क्या अर्थ है? खासकर जब हमारी कमाई और ज्यादातर खर्च डॉलर में नहीं होते हैं। आटा, दाल-चावल, दूध, अंडे वगैरह हम डॉलर के हिसाब से नहीं खरीदते। हम अपनी गाड़ी में पेट्रोल भरवाने या बस का टिकट खरीदने के लिए डॉलर में भुगतान नहीं करते। अपने लिए मोबाइल फोन या बच्चों के लिए लैपटॉप खरीदते समय भी हमें डॉलर की जरूरत नहीं पड़ती। तो क्या हमें इस गिरते रुपये की चिंता करनी चाहिए? बिलकुल करनी चाहिए। ग्लोबल हो चुकी इस दुनिया में हर देश की मुद्रा की दुनिया की सबसे मजबूत मुद्रा अमेरिकी डॉलर के मुकाबले क्या कीमत है, इसका न सिर्फ उस देश की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ता है, बल्कि बाजार में बहुत सारी चीजों की कीमतों पर भी। जैसे- भारत का 75 फीसदी आयात कच्च तेल है, जिसके लिए डॉलर में भुगतान होता है। अगर डॉलर की कीमत बढ़ती है, यानी डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत गिरती है, तो हमें इस आयात के लिए ज्यादा खर्च करना पड़ेगा। नतीजा क्या होगा? हालांकि, सरकार तेल कंपनियों और रिफाइनरियों को पैसा देकर सब्सिडी से इसकी कीमत को कम करने की कोशिश करती है, लेकिन यह काम अनंत काल तक नहीं किया जा सकता। इसलिए तेल कंपनियों के पास इसकी कीमत बढ़ाने के अलावा कोई और चारा नहीं होता। यही वजह है कि पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस सभी की कीमत पिछले कुछ समय से लगातार बढ़ रही है। बावजूद इसके कि दुनिया भर में इनकी कीमत इन दिनों स्थिर है। लेकिन क्योंकि रुपये की कीमत गिर रही है, इसलिए हमें और आपको ज्यादा कीमत देनी पड़ रही है।
लेकिन रुपये की कीमत के गिरने का यह हम पर पड़ने वाला अकेला असर नहीं है। सब्जी, अनाज, मीट, मछली वगैरह जो भी चीजें हम खाते हैं, वे जिन ट्रक, टैंपू वगैरह पर लदकर आती हैं, उनके लिए भी डीजल और पेट्रोल की जरूरत पड़ती है। इसका असर माल भाड़े पर पड़ता है, जिससे इन सब चीजों की कीमत बढ़ जाती है। रुपये की गिरती कीमत हम पर और भी कई तरीकों से असर डालती है। जिस भी चीज के उत्पादन में कच्चे माल का आयात होता है, उसकी लागत बढ़ जाती है। इसका अर्थ हुआ कि उपभोक्ता को उसके लिए अपनी जेब ज्यादा ढीली करनी होती है। इसलिए अगर आप कार या स्कूटर खरीदने जा रहे हैं, तो आपको ज्यादा कीमत चुकानी होगी, क्योंकि इनके उत्पादन में कई आयातित चीजों का इस्तेमाल होता है। मोबाइल फोन, टैबलेट, कंप्यूटर और लैपटॉप भी आपको महंगे मिलेंगे, क्योंकि इनके ज्यादातर सामान आयात होते हैं। जो लोग विदेश में पढ़ रहे हैं या पढ़ने जाना चाहते हैं, उन्हें भी अब रुपये की कीमत गिरने के कारण ज्यादा खर्च करना होगा।
लेकिन रुपया इतना ज्यादा गिरा क्यों? इसके लिए हमें अमेरिकी अर्थव्यवस्था को देखना होगा। पिछले कुछ साल में अमेरिका आर्थिक सुस्ती से गुजरा है। कुछ लोग इसे मंदी भी कहते हैं। इस दौरान अमेरिकी अर्थव्यवस्था में ज्यादा बढ़ोतरी नहीं हुई, रोजगार के नए अवसर नहीं पैदा हुए, बेरोजगारी बढ़ी और नए कारोबार में ज्यादा निवेश नहीं हुआ। अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए अमेरिकी फेडरल रिजर्व (जो हमारे रिजर्व बैंक जैसी ही संस्था है) नोट छापने शुरू कर दिए, ताकि अर्थव्यवस्था में मुद्रा आपूर्ति बढ़ाई जा सके। यह काम आम तौर पर सरकारी बांड खरीदकर किया जाता है, सरकार इस पैसे का इस्तेमाल खर्च और उपभोग बढ़ाने के लिए करती है। इसका एक असर यह भी हुआ कि डॉलर की कीमत कम हो गई। लेकिन इस साल के शुरू में जब अर्थव्यवस्था के अपने रंग में वापस आने के संकेत दिखाई दिए, तो फेडरल रिजर्व ने बांड खरीदने का सिलसिला रोक दिया। इसका अर्थ था बाजार में डॉलर की आपूर्ति का पहले के मुकाबले कम हो जाना। इससे डॉलर की कीमत बढ़ने लगी, जिसकी वजह से वैश्विक निवेशक उन देशों के बाजारों को छोड़ने लगे, जहां की मुद्रा कमजोर है। भारत और दूसरे विकासशील देश इसका शिकार बने। भारत में निवेश करने वाले वैश्विक फंड तुरंत ही अमेरिका के मजबूत बाजार की ओर रुख करने लगे।
इससे भी बुरी बात यह हुई कि भारत की अर्थव्यवस्था सुस्त होने लगी। जहां कभी आठ और नौ फीसदी की विकास थी, वहां अब विकास दर पांच फीसदी के आसपास हो गई। तो क्या इसका अर्थ है कि रुपये की कीमत के गिरने में सब बुरा ही बुरा है? और फिर भारत रुपये की इस गिरावट का मुकाबला कैसे कर सकता है? पहले बात करते हैं गिरते रुपये के फायदे की। जब रुपया गिरता है, तो विदेशी बाजार में भारतीय सामान सस्ता हो जाता है। इससे विदेशी खरीदारों को भारतीय निर्यात ज्यादा आकर्षक लगने लगता है। और अगर निर्यात तेजी से बढ़े, तो डॉलर में कारोबार करने वाले निर्यातकों की आमदनी भी तेजी से बढ़ेगी। इससे हमारा विदेश व्यापार घाटा भी कम हो सकता है। क्योंकि अभी तक हम आयात करने के लिए जितनी विदेशी मुद्रा खर्च करते हैं, उसके मुकाबले कम निर्यात के कारण बहुत कम विदेशी मुद्रा ही हमें मिल पाती है। रुपये की कीमत कम होने के कारण निर्यातकों को फायदा हो सकता है, लेकिन यह इस पर भी निर्भर करेगा कि चीन और दूसरे एशियाई देशों के मुकाबले हमारा माल कहां ठहर पाता है। इसका फायदा भारत के आउटसोर्सिंग उद्योग को भी होगा, खास तौर पर कॉल सेंटर और बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग कंपनियों को। इन सबका कारोबार भी डॉलर में होता है और अब ये सेवाएं विदेशी ग्राहकों के लिए सस्ती पड़ेंगी।
और अब आता है गिरते रुपये का मुकाबला करने का मुद्दा। इसका सबसे अच्छा तरीका है कि भारतीय उद्योगों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को प्रोत्साहित किया जाए। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश या एफडीआई के रूप में जो धन आता है, वह भारतीय बाजार के दीर्घकालिक महत्व को देखते हुए आता है। यह शेयर बाजार या मुद्रा बाजार में होने वाला निवेश नहीं है, जो थोड़े से उतार-चढ़ाव से ही बाहर आ जा सकता है। जैसे-जैसे एफडीआई की आमद बढ़ेगी, रुपये की कीमत सुधरेगी। यही वजह है कि सरकार इन दिनों खुदरा बाजार, टेलीकॉम, ऊर्जा और दूसरे क्षेत्रों में एफडीआई लाने की कोशिश तेज कर रही है। निर्यात और विदेशी निवेश को बढ़ाकर ही हम गिरते रुपये को थाम सकते हैं।
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