भारत में मुद्रा की परिवर्तनीयता

भारत अभी भी पूंजी खाते में रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता के लिए तैयार नहीं है। देश की अर्थव्यवस्था का अभी भी विस्तार हो रहा है और बाहरी मोर्चे पर इसे स्थिरता की जरूरत है। रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर एच.आर. खान ने यह बात कही। खान ने कहा कि रुपये को पूंजी खाते में पूरी तरह परिवर्तनीय बनाने के नफे-नुकसान से जुड़ा मुद्दा काफी विवादित मुद्दा है। 'फिलहाल, इस समय हम इसके लिए तैयार नहीं हैं।' खान ने कहा कि विदेशी विनिमय बाजार की पृष्ठभूमि 1991 में देश के समक्ष आए भुगतान संतुलन संकट के बाद कई कारणों पर आधारित है।17 जनवरी को मुंबई में एक प्रबंधन संस्थान में खान ने इस संबंध में जो भाषण दिया था, रिजर्व बैंक ने उसे वेबसाइट पर डाला है।

उन्होंने कहा कि सरकार ने 1994 में रुपये को चालू खाते में पूरी तरह परिवर्तनीय बनाने की अनुमति दी थी। उसके बाद से रुपये को पूंजी खाते में भी परिवर्तनीय बनाया जा रहा है। वर्तमान में भारतीय मुद्रा सिर्फ चालू खाते में ही परिवर्तनीय है। हालांकि कुछ पूंजी खाते के लेनदेन की भी अनुमति है। चालू खाते की परिवर्तनीयता का मतलब है कि मुद्रा की सीमापार आवाजाही पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं है। विदेशी निवेशक जहां देश में 81 अरब डॉलर तक के बॉन्ड खरीद सकते हैं, वहीं शेयर बाजार में निवेश की कोई सीमा नहीं है।

भारत में मुद्रा की परिवर्तनीयता

बीते कुछ समय में भारतीय रिजर्व बैंक और सरकार के बीच कई मुद्दों पर विवाद की स्थिति देखने को मिली है। हालांकि उनकी कोशिश यही रही है कि असहमति अथवा विवाद सार्वजनिक रूप से सामने न आने पाए। ऐसे में रुपये की परिवर्तनीयता पर दोनों को एकमत देखना आश्चर्यजनक था। आरबीआई के गवर्नर रघुराम राजन और वित्त राज्य मंत्री जयंत सिन्हा ने छोटे से अंतराल में ही मुद्रा की परिवर्तनीयता की हिमायत में बयान दिए। इसकी आर्थिक वजहों के बारे में अभी स्पष्टï कुछ नहीं कहा जा सकता है लेकिन इसकी राजनीतिक वजह तो स्पष्ट नजर आ रही है। सिन्हा ने कहा कि भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था बनाने के लिए यह आवश्यक है कि रुपये को पूर्ण परिवर्तनीय बनाया जाए।

भारत की वैश्विक पहचान भाजपा के एजेंडे में प्रमुख है, वहीं एक अन्य धड़ा ऐसा भी है जिसका सोचना है कि पहली आवश्यकता है देश में गरीबों की संख्या कम करना क्योंकि उनकी पहुंच साफ पेयजल और मूलभूत सफाई तक भी नहीं है। स्पष्टï है कि हमें अपनी प्राथमिकताएं तय करने की आवश्यकता है। सन 1991 से ही विदेशी मुद्रा पर नियंत्रण को लगातार कम किया गया है और रुपये को यह इजाजत दी गई है कि वह बाजार में अपनी दर तय कर सके। इस प्रक्रिया को अर्थव्यवस्था की बेहतरी में ही करार दिया जा सकता है। समय बीतने के साथ-साथ रुपया चालू खाते में परिवर्तनीय होता गया है और विदेशी मुद्रा भंडार में भी इजाफा हुआ है। इसे बाहरी मोर्चे पर लाए गए उदारीकरण की बानगी माना जा सकता है।

लेकिन चालू खाते की परिवर्तनीयता, अबाध निवेश और काल्पनिक पूंजी प्रवाह एकदम अलग बात है। ब्रेटनवुड में वॉशिंगटन सहमति बनने के बाद और पश्चिमी सोच पर वॉल स्ट्रीट के बढ़ते प्रभाव के बीच पूंजी खाते की परिवर्तनीयता अहम होकर सामने आई। यह दौर वर्ष 1997-98 के एशियाई वित्तीय संकट तक चलता रहा। थाईलैंड, मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देशों को इसके चलते दिक्कत का सामना करना पड़ा लेकिन भारत, चीन और वियतनाम जैसे देश जिन्होंने पूंजी पर नियंत्रण बरकरार रखा था वे दिक्कत में नहीं आए और वित्तीय झटकों से सुरक्षित बने रहे। उसके बाद वित्तीय संकट का दौर आया। नकदी की सख्त कमी के उस दौर में भी भारतीय अर्थव्यवस्था स्थिर बनी रहने में कामयाब रही। इस बात ने पूंजी पर नियंत्रण के फायदों को ही रेखांकित किया।

यह बात स्वत: सिद्घ है कि जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था का विकास होता है, वह और अधिक जटिल होती जाती है, वैसे-वैसे नियंत्रण खत्म होते जाने चाहिए। इन हालात में नियंत्रण पूरी तरह बाजार के हाथ में रहना चाहिए। इतना ही नहीं पूंजी पर से नियंत्रण तब तक नहीं जाना चाहिए जब तक वृहद आर्थिक स्तर पर सुरक्षा का माहौल न हो। राजकोषीय स्थिति सुदृढ़ बनी हुई हो और मुद्रास्फीति का स्तर भी कम हो। भारत अभी इस स्थिति से कोसों दूर है। इसके अलावा हमारे देश में सोने को लेकर जो सांस्कृतिक लगाव है उसने देश के भुगतान संतुलन को अस्थिर बना रखा है।

पूंजीगत नियंत्रण खत्म करने का सबसे बड़ा खतरा यह है कि इससे अपेक्षाकृत तेजी से बाहरी कर्ज में फंस जाने का जोखिम बढ़ जाता है, खासतौर पर अल्पावधि में। अगर यह कर्ज बढ़ता जाता है तो देश के एक बार फिर वर्ष 1990 के दौर के भुगतान संतुलन जैसी स्थिति में फंस जाने का जोखिम है। बाहरी कर्ज की बात करें तो उस मोर्चे पर हमारी स्थिति वर्ष 2007 (वित्तीय संकट के ऐन पहले) की तुलना में थोड़ी खराब दिख रही है। हालांकि वह वर्ष 1991 की तुलना में तो बेहतर है। जीडीपी की तुलना में बाहरी कर्ज 23.2 फीसदी है जो वर्ष 2007 के 17.5 फीसदी से काफी खराब है। वर्ष 1991 में यह 28.7 फीसदी था। कुल बाहरी कर्ज की तुलना में विदेशी मुद्रा भंडार 70.2 भारत में मुद्रा की परिवर्तनीयता फीसदी है जबकि वर्ष 1991 में यह बमुश्किल 7 फीसदी था। लेकिन सबसे अहम बात यह है कि अब अल्पावधि के कर्ज और विदेशी मुद्रा भंडार का अनुपात 27.8 प्रतिशत के बराबर है जबकि वर्ष 2007 में यह 14 फीसदी था।

जब कर्ज और जीडीपी का अनुपात लगातार बढ़ रहा हो और विदेशी मुद्रा भंडार कम हो रहा हो तो जाहिर सी बात है कि यह वक्त भारत में मुद्रा की परिवर्तनीयता पूर्ण परिवर्तनीयता को लेकर चर्चा करने का नहीं है। विदेशी मुद्रा की आवक में तेज बढ़ोतरी का एक नुकसान यह भी है कि रुपये के मूल्य में अनावश्यक तेजी आती है। रुपये की वास्तविक प्रभावी विनिमय दर वर्ष 2013-14 के 103.27 फीसदी से बढ़कर भारत में मुद्रा की परिवर्तनीयता इस वर्ष मार्च में 113.23 फीसदी हो गई। अधिमूल्यित विनिमय दर और वैश्विक मंदी दोनों निर्यात को प्रभावित करते हैं। देश भारत में मुद्रा की परिवर्तनीयता के प्रमुख सॉफ्टवेयर निर्माता तक मुद्रा की अस्थिरता से परेशान हैं।

इस मोड़ पर यह अहम है कि सही संकेत दिए जाएं। संकेत भारत में मुद्रा की परिवर्तनीयता यह होना चाहिए कि भारत अपने बाहरी कर्ज पर सख्त नियंत्रण रखने का हिमायती है। देश को अभी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के जरिये भारी भरकम पूंजी की आवश्यकता है ताकि हम फैक्टरियों का निर्माण कर मेक इन इंडिया के एजेंडे को आगे बढ़ा सकें। फौरी जरूरत एफडीआई पर से नियंत्रण हटाना है, न कि पूर्ण परिवर्तनीयता।

पूर्ण परिवर्तनीयता की ओर बढ़ रहे हैं भारत के कदम

Modi Government hints at moving towards full capital account convertibility

भारत को दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल करने के लिए अभी कई बड़े नीतिगत कदम उठाने की जरूरत है। यह बात कहते हुए वित्त राज्य मंत्री जयंत सिन्हा ने संकेत दिया कि सरकार आने वाले दिनों में पूंजी खाते की पूर्ण परिवर्तनीयता की ओर कदम बढ़ा सकती है। इसकी वकालत भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर रघुराम राजन भी करते रहे हैं।

सिन्हा ने कहा कि अगर हमें भारत को ग्लोबल स्तर पर एक अग्रणी अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित करना है, तो हमें समय के साथ कई नीतिगत कदम उठाने होंगे और कई चीजें करनी होंगी। इसे करने के लिए हमें अपने पूंजी बाजार को और व्यापक और गहरा बनाना होगा। पूंजी खाते की परिवर्तनीयता भी इस लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। वैश्विक अर्थ व्यवस्था में हमें निश्चित रूप से अपनी उचित भूमिका और जिम्मेदारी निभानी होगी। इसके लिए हमें परिवर्तनीयता की ओर कदम बढ़ाना होगा।

इससे पहले वित्त मंत्री अरुण जेटली भी बड़े सुधारों की जरूरत भारत में मुद्रा की परिवर्तनीयता जताते हुए आने वाले महीनों में कुछ वित्तीय सुधार किए जाने का संकेत दे चुके हैं। विदेशी वित्तीय संस्थान भी देश में बड़े वित्तीय सुधारों और जमीनी स्तर पर कारोबार करने की सहूलियतों को बढ़ाने की जरूरत जता चुके हैं। इसके अलावा सिन्हा का भारत में मुद्रा की परिवर्तनीयता बयान इस संदर्भ में भी प्रासंगिक हो जाता है, क्यों कि आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन भी हाल ही में कह चुके हैं कि रिजर्व बैंक आने वाले कुछ वर्ष में पूंजी खाते की पूर्ण परिवर्तनीयता की इजाजत देने पर विचार कर रहा है।

राजन ने कहा था कि पूंजी का प्रवाह बढ़ाने को लेकर रिजर्व बैंक खुले दिमाग से विचार कर रहा है। राजन ने कहा था कि पूंजी के प्रवाह के मामले में केवल ऋण बाजार से जुड़ी कुछ बंदिशें हैं, वह भी खासकर कम अवधि के कर्ज (डेट) निवेशों में।

गौरतलब है कि पूंजी की पूर्ण परिवर्तनीयता का मतलब यह है कि विदेशी निवेशक अपनी इच्छा के मुताबिक अपने धन को अपने देश में प्रचलित मुद्रा में वापस भेज सकेंगे। फिलहाल भारत में इसकी इजाजत नहीं है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने हाल ही में गुजरात में देश के पहले अंतरराष्ट्रीय फाइनेंस सेंटर का उद्घाटन किया है। रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता इस ग्लोबल फाइनेंसियल सर्विस हब के प्रभावशाली ढंग से काम कर पाने के लिए भी काफी महत्वपूर्ण है। गौरतलब यह है कि कई आर्थिक विश्लेषक पूर्ण परिवर्तनीयता के बजाय आरबीआई की मौजूदा आंशिक मौद्रिक नियंत्रण की नीति की भी सराहना करते हैं।

उनका मानना है कि इसी के चलते रुपये को बड़ी गिरावट का शिकार होने से बचाए रखा है, जबकि मुद्रा की पूर्ण परिवर्तनीयता के चलते उस समय (1997-98) में दक्षिण एशिया की कई मुद्राओं में भारी गिरावट देखने को मिली थी। इसी तरह आरबीआई के मौद्रिक नियंत्रण ने 2013 में अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा बांड खरीद में कटौती (टेपरिंग) की घोषणा के वक्त भी रुपये को धराशाई होने से बचाए रखा था। उस समय विदेश निवेशकों द्वारा 20 अरब डॉलर से भी अधिक की पूंजी निकाले जाने पर भी रुपया बहुत बड़ी गिरावट का शिकार होने से बचा रहा।

भारत को दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल करने के लिए अभी कई बड़े नीतिगत कदम उठाने की जरूरत है। यह भारत में मुद्रा की परिवर्तनीयता बात कहते हुए वित्त राज्य मंत्री जयंत सिन्हा ने संकेत दिया कि सरकार आने वाले दिनों में पूंजी खाते की पूर्ण परिवर्तनीयता की ओर कदम बढ़ा सकती है। इसकी वकालत भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर रघुराम राजन भी करते रहे हैं।

सिन्हा ने कहा कि अगर हमें भारत को ग्लोबल स्तर पर एक अग्रणी अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित करना है, तो हमें समय के साथ कई नीतिगत कदम उठाने होंगे और कई चीजें करनी होंगी। इसे करने के लिए हमें अपने पूंजी बाजार को और व्यापक और गहरा बनाना होगा। पूंजी खाते की परिवर्तनीयता भी इस लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। वैश्विक अर्थ व्यवस्था में हमें निश्चित रूप से अपनी उचित भूमिका और जिम्मेदारी निभानी होगी। इसके लिए हमें परिवर्तनीयता की ओर कदम बढ़ाना होगा।

इससे पहले वित्त मंत्री अरुण जेटली भी बड़े सुधारों की जरूरत जताते हुए आने वाले महीनों में कुछ वित्तीय सुधार किए जाने का संकेत दे चुके हैं। विदेशी वित्तीय संस्थान भी देश में बड़े वित्तीय सुधारों और जमीनी स्तर पर कारोबार करने की सहूलियतों को बढ़ाने की जरूरत जता चुके हैं। इसके अलावा सिन्हा का बयान इस संदर्भ में भी प्रासंगिक हो जाता है, क्यों कि आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन भी हाल ही में कह चुके हैं कि रिजर्व बैंक आने वाले कुछ वर्ष में पूंजी खाते की पूर्ण परिवर्तनीयता की इजाजत देने पर विचार कर रहा है।

राजन ने कहा था कि पूंजी का प्रवाह बढ़ाने को लेकर रिजर्व बैंक खुले दिमाग से विचार कर रहा है। राजन ने कहा था कि पूंजी के प्रवाह के मामले में केवल ऋण बाजार से जुड़ी कुछ बंदिशें हैं, वह भी खासकर कम अवधि के कर्ज (डेट) निवेशों में।

गौरतलब है कि पूंजी की पूर्ण परिवर्तनीयता का मतलब यह है कि विदेशी निवेशक अपनी इच्छा के मुताबिक भारत में मुद्रा की परिवर्तनीयता अपने धन को अपने देश में प्रचलित मुद्रा में वापस भेज सकेंगे। फिलहाल भारत में इसकी इजाजत नहीं है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने हाल ही में गुजरात में देश के पहले अंतरराष्ट्रीय फाइनेंस सेंटर का उद्घाटन किया है। रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता इस ग्लोबल फाइनेंसियल सर्विस हब के प्रभावशाली ढंग से काम कर पाने के लिए भी काफी महत्वपूर्ण है। गौरतलब यह है कि कई आर्थिक विश्लेषक पूर्ण परिवर्तनीयता के बजाय आरबीआई की मौजूदा आंशिक मौद्रिक नियंत्रण की नीति की भी सराहना करते हैं।

उनका मानना है कि इसी के चलते रुपये को बड़ी गिरावट का शिकार होने से बचाए रखा है, जबकि मुद्रा की पूर्ण परिवर्तनीयता के चलते उस समय (1997-98) में दक्षिण एशिया की कई मुद्राओं में भारी गिरावट देखने को मिली थी। इसी तरह आरबीआई के मौद्रिक नियंत्रण ने 2013 में अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा बांड खरीद में कटौती (टेपरिंग) की घोषणा के वक्त भी रुपये को धराशाई होने से बचाए रखा था। उस समय विदेश निवेशकों द्वारा 20 अरब डॉलर से भी अधिक की पूंजी निकाले जाने पर भी रुपया बहुत बड़ी गिरावट का शिकार होने से बचा रहा।

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